गूच के अनुसार, “फ्रांस की क्रान्ति ( france ki kranti ) यूरोप के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी।” किन्तु वास्तव में फ्रांस की क्रान्ति केवल फ्रांस और यूरोप के इतिहास की ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण मानव जाति के इतिहास में भी महत्वपूर्ण घटना थी।
इस क्रान्ति ने लोगों के समक्ष स्वतन्त्रता, समानता तथा भ्रातृत्व के आदर्श विचार प्रस्तुत किए, जो आज विश्व के कोने-कोने तक पहुंच चुके हैं। फ्रांस की क्रान्ति सैनिक ही नहीं अपितु विचारों की भी लड़ाई थी।
क्रान्तियां कभी अचानक नहीं होती और संयोगवश तो कभी भी नहीं। एक छोटी सी घटना सुरंग में चिंगारी का कार्य कर आग तो प्रज्वलित कर सकती है, परन्तु सुरंग का पहले से ही बारूद से भरा होना नितान्त आवश्यक है।
फ्रांस की क्रान्ति में भी ऐसा ही हुआ। क्रान्ति रूपी सुरंग तो लगभग दो शताब्दियों पूर्व से ही तैयार होनी प्रारम्भ हो गई थी, 1789 ई. में उसे केवल विस्फोटित कर दिया गया।
यद्यपि उस समय यूरोप के सभी देशों की स्थिति एक समान थी, परन्तु फ्रांस की स्थिति सर्वाधिक शोचनीय थी और यही कारण था कि सर्वप्रथम फ्रांस में ही क्रान्ति हुई।
इस क्रान्ति ने फ्रांस की काया पलट दी। धनवान तथा निर्धनों का भेदभाव ही मिटा देने का प्रयत्न किया गया, जमींदारों तथा पादरियों की सत्ता को समाप्त कर दिया गया ।
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Causes of French Revolution in Hindi | History फ्रांस की क्रांति के कारण
फ्रांस की क्रान्ति ( france ki kranti ) व विस्फोट के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे:
(अ) राजनीतिक कारण : फ्रांस की क्रांति का राजनीतिक कारण
(1) राजाओं की निरंकुशता— ( france ki kranti )
फ्रांस की क्रान्ति के विस्फोट के अवसर पर फ्रांस में निरंकुश शासन पद्धति का प्रचलन था। राजा लुई चौदहवां (1643-1715 ई.) स्वयं को पृथ्वी पर ईश्वर प्रतिनिधि मानता था और निरंकुश स्वेच्छाचारी तरीके से अवाध रूप से जनता पर शासन करता था।
फ्रांस का तत्कालीन राजा लुई सोलहवां एक स्वेच्छाचारी, निरंकुश, जिद्दी, बुद्धिहीन उदासीन शासक था। उसने जनता पर अनेक प्रकार के कर लगा दिए, जिससे फ्रांसीसी में व्यापक असन्तोष व्याप्त हो गया।
इसने अपने समय में नागरिकों की स्वतन्त्रता समाप्त कर दी और कहा कि राजा जिसे चाहे कैद कर सकता है व उस पर मुकदमा चला सकता है।
(2) प्रान्तों में असमानताएं-
फ्रांस के प्रत्येक प्रान्त में भिन्न भिन्न कानून तथा करों की दरें भिन्न-भिन्न थीं जिससे फ्रांसीसी जनता को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।
(3) दूषित प्रशासन—
( france ki kranti ) फ्रांस की प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन दोषपूर्ण था। उसमें भाई-भतीजावाद और पक्षपात का बोलबाला था। राज्य के समस्त महत्वपूर्ण पदों पर सामन्तों और अमीरों को ही नियुक्त किया जाता था।
विभिन्न कानूनों का प्रचलन अलग-अलग प्रान्तों में था, जिसके कारण एक प्रान्त में जो कार्य नियमानुकूल और कानूनी होता था, दूसरे प्रान्त में वह गैर-कानूनी समझा जाता था।
प्रसिद्ध लेखक हेजन ने भी इस सन्दर्भ में लिखा है, “एक नगर में जो नियमानुकूल था, वह उससे पांच मील की दूरी पर गैर-कानूनी था। लगभग 400 प्रकार के कानून फ्रांस के विभिन्न भागों में प्रचलित थे।
(4) भ्रष्ट न्याय व्यवस्था—
फ्रांस की क्रान्ति के अवसर पर वहां 17 प्रकार के न्यायालय थे। न्यायाधीशों की सुविधा के लिए किसी प्रकार की कोई न्याय की पुस्तक फ्रांस में उपलब्ध नहीं थी।
न्यायाधीशों के पद बेचे और खरीदे जाते थे। न्यायाधीश भारी जुर्मानों से अपनी जेबें भरते थे और न्याय खुले आम बिकता था।
(5) राजाओं की अयोग्यता-
लुई 16वें के शासनकाल तक आते-आते फ्रान्स की राजतन्त्रात्मक व्यवस्था पूरी तरह से अनैतिक एवं भ्रष्ट हो चुकी थी। देश में सर्वत्र भ्रष्टाचार और असन्तोष व्याप्त था। जनसाधारण राजा के अनुत्तरदायी भ्रष्ट कार्यों के कारण उससे ऊब चुका था।
इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध लेखक रॉबर्ट्सन का मत है कि “लुई 16वें में अब तक मुकुट धारण करने वाले लोगों की तुलना में राजत्व के गुणों का नितान्त अभाव था। वह एक सुस्त, आलसी, निद्राप्रिय और आत्म सन्तुष्ट जीव था ।
जो केवल शिकार, बन्दूक चलाने, बाल संवारने और नाट्यशालाओं में रुचि रखता था।” इसी शासक को जनता ने इसके अत्याचारों के कारण 1793 में इसे इसकी पत्नी सहित गिलोटिन पर चढ़ा दिया था।
(6) करों का बोझ-
जनसाधारण राजाओं की अकुशलता के कारण करों के बोझ से दवा हुआ था। उन्हें अपनी आय का लगभग 80% भाग कर के रूप में अदा करना पड़ता था, जिसके कारण उन्हें दयनीय जीवन व्यतीत करना पड़ रहा था।
जबकि शाही परिवार के सदस्य, सामन्त और बड़े पादरी जो समाज का सर्वाधिक धनी वर्ग था, करों से पूरी तरह मुक्त था। जनता को नमक कर भी देना पड़ता था जो सबसे ज्यादा असन्तोष पैदा करता था। अतः स्पष्ट है कि फ्रांस की क्रान्ति के विस्फोट में राजनीतिक कारणों का अत्यधिक महत्व रहा।
(ब) सामाजिक कारण | फ्रांस की क्रांति के सामाजिक कारण
क्रान्ति के विस्फोट में सामाजिक कारणों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। समाज में प्रचलित असमानता ने असन्तोष को जन्म दिया और जनसाधारण को प्रेरित किया कि वे वर्तमान सामाजिक ढांचे के विरुद्ध आवाज उठायें। मुख्य रूप से फ्रांसीसी समाज तीन भागों में बंटा हुआ था-
(i) पादरी (प्रथम एस्टेट),
(i) कुलीन वर्ग (द्वितीय एस्टेट),
(ii) सर्वसाधारण वर्ग (तृतीय एस्टेट)।
प्रथम व द्वितीय एस्टेट अधिक अधिकार व साधन सम्पन्न होते थे। जबकि तृतीय एस्टेट जिसमें किसान, दस्तकार, मजदूर व मध्यम वर्ग के लोग आते थे।
तृतीय एस्टेट के लोगों को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था और वे करों के भार से दबे हुए थे। अतः इस सामाजिक असमानता ने दोनों वर्गों के बीच एक ऐसी दरार उत्पन्न कर दी थी, जिसे कभी भी पाटा नहीं जा सकता था।
(1) पादरी (प्रथम एस्टेट)-
फ्रांस में उस समय अधिकांश पादरी कैथोलिक मत के थे। पादरी अपनी जागीर भूमि से कर वसूलते थे जिससे वे काफी धनी हो गए थे। ये पादरी राजा से पृथक चर्च का न्यायालय चलाते थे,
इसी कारण फ्रांस का चर्च राज्य के अन्दर राज्य कहा जाता है। इन चर्चों के पादरी करों से मुक्त थे। इस कारण चर्च काफी बदनाम होते जा रहे थे व लोगों में उसके प्रति नाराजगी बढ़ रही थी।
(2) कुलीन वर्ग (द्वितीय एस्टेट)–
फ्रांस का कुलीन वर्ग राज्य की 20% भूमि पर कब्जा रखता था। राज्य, चर्च व सेना के सभी उच्च पद इन्हीं कुलीनों के पास थे। ये जमींदारी का कार्य करते थे, लोगों के झगड़ों का फैसला भी करते थे।
ये लोग लोगों की सम्पत्ति छड़पने के लिए लोगों पर भारी जुर्माना भी लगाते थे। इन्हीं कारणों से इनके प्रति असन्तोष पनप रहा था।
(3) सर्वसाधारण वर्ग (तृतीय एस्टेट)—
यह वर्ग स्वयं दो भागों में विभाजित था। इसमें एक मध्यम वर्ग और दूसरा जनसाधारण वर्ग था। इस वर्ग की कुल जनसंख्या फ्रांस की जनसंख्या का 94% भाग थी।
(i) मध्यम वर्ग-
इस वर्ग में मुख्यतः डॉक्टर, वकील, दार्शनिक और प्रोफेसर लोग आते थे, जिनके पास शिक्षा, धन व बुद्धि का अद्भुत समन्वय था। इन्होंने व्यापार एवं बौद्धिक क्षेत्र में अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया था।
अक्सर ये सामन्तों को धन उधार दिया करते थे। सरकार भी आवश्यकता पड़ने पर समय-समय पर इनसे ऋण लिया करती थी। परन्तु इन्हें किसी प्रकार का कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था।
इसलिए ये अपनी स्थिति से सन्तुष्ट नहीं थे। सम्पन्न और सुयोग्य होते हुए भी ये सामन्तों और कुलीनों के समान सामाजिक सम्मान से वंचित थे, अतः वर्तमान व्यवस्था के विरोधी थे।
(ii) जनसाधारण वर्ग-
फ्रांसीसी समाज में सबसे गिरी हुई स्थिति जनसाधारण की थी जिसे तृतीय एस्टेट कहा जाता था। इस वर्ग में कृषक, मजदूर, घरेलू नौकर आदि आते थे।
समाज में इस वर्ग की संख्या बहुत अधिक थी, फिर भी इनके जीवन में इतना शोषण व उत्पीड़न जुड़ा हुआ था कि उन्हें पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था।
न तो इनके पास दो समय की रोटी की कोई व्यवस्था थी और न ही शरीर ढंकने के लिए समुचित वस्त्र थे। वे अपने बच्चों का पेट भरने में असमर्थ थे, इसलिए वर्तमान व्यवस्था के अन्तर्गत अपने आपको असंतुष्ट एवं निराश अनुभव करते थे।
शाही करों का अधिकतम भार इसी वर्ग को वहन करना पड़ता था। कर वसूल करने वाले कर्मचारी इनका सर्वाधिक शोषण करते थे।
अतः स्पष्ट है कि विशेषाधिकारहीन वर्ग में जनसाधारण की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। वर्तमान शासन-पद्धति से वह कदाचित सन्तुष्ट नहीं थे और उसमें आमूलचूल परिवर्तन के आकांक्षी थे।
(स) आर्थिक कारण : फ्रांस की क्रांति का आर्थिक कारण
आधुनिक फ्रांस का एफिल टावर | French Revolution
फ्रांस की दयनीय आर्थिक अवस्था फ्रांस की क्रान्ति का प्रमुख कारण थी। कहा गया है कि फ्रांस की क्रान्ति को शीघ्र लाने का उत्तरदायित्व आर्थिक कारणों पर था, और दार्शनिक विद्वानों द्वारा तैयार किया गया बारूद आर्थिक कारणों के द्वारा भड़काया गया था।
लुई चौदहवें के युद्धों ने देश की आर्थिक व्यवस्था को अत्यधिक शोचनीय बना दिया था। लुई पन्द्रहवें ने भी युद्धों, राजमहल और प्रेमिकाओं पर काफी धन नष्ट किया।
लुई सोलहवें को भी युद्धों से विशेष लगाव था और अपने शासनकाल में उसने कई युद्धों में भाग लिया था। परिणामतः राष्ट्रीय ऋण का भार सरकार पर अत्यधिक बढ़ गया था।
जब फ्रांस कर्ज के बोझ से बुरी तरह दबा हुआ था, तब अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए लुई सोलहवें ने 1787 ई. में कुलीन वर्ग की एक सभा को आमन्त्रित किया।
लुई सोलहवें को ऐसी आशा थी कि ये लोग विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोगों पर कर लगाने के प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति दे देंगे, परन्तु कुलीन वर्ग राजा पर यह कृपा करने के लिए तैयार न था।
राजा ने और ऋण प्राप्त करने का प्रयत्न किया, किन्तु पेरिस की संसद ने अन्य कर्ज और नए करों की अनुमति देने से इंकार कर दिया। इसने ‘अधिकारों का एक घोषणा पत्र’ तैयार किया और यह दावा किया कि धन की मांगें संवैधानिक दृष्टि से केवल स्टेट्स जनरल के द्वारा ही स्वीकृत की जा सकती हैं।
सरकार ने पेरिस की संसद के विरुद्ध कार्यवाही की और उसको समाप्त कर दिया। इससे जनता में अत्यधिक आक्रोश उत्पन्न हुआ और सैनिकों ने जजों को गिरफ्तार करने से इंकार कर दिया। जनता ने स्टेट्स जनरल के अधिवेशन की मांग की।
इन परिस्थितियों में राजा को झुकना पड़ा और उसने 175 वर्षों (1614-1789 ई.) के बाद स्टेट्स जनरल के निर्वाचनों के लिए आदेश जारी किए। इस प्रकार फ्रांस की 1789 ई. की क्रान्ति प्रारम्भ हुई।
(द) बौद्धिक कारण : फ्रांस की क्रांति के बौद्धिक कारण
विद्वान इतिहासकार कैटेलबी का कथन है कि “सभी प्रकार के लेखकों ने फ्रांस की क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त किया।” वस्तुतः जब फ्रांस की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दशा पतनोन्मुख हो रही थी, उस समय सभी प्रकार के लेखकों ने अपने लेखों एवं भाषणों के द्वारा मृतप्रायः जनसाधारण में एक नवजीवन फूंक दिया।
उन्होंने केवल प्रचलित सामाजिक व्यवस्था कुठाराघात नहीं किया अपितु चर्च से सम्बन्धित समस्त कुरीतियों एवं बुराइयों के प्रति भी असन्तोष और नाराजगी प्रकट की।
इस प्रकार फ्रांस की सोई हुई जनता को जाग्रत करने में इन लेखकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। निस्सन्देह फ्रांस की राजक्रान्ति भौतिक असंतोष एवं बौद्धिक जागरण का मिश्रित परिणाम थी।
तत्कालीन प्रसिद्ध बौद्धिक प्रतिभाओं में मोन्टेस्क्यू, वाल्टेयर और रूसो के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार उपर्युक्त समस्त कारणों से क्रान्ति रूपी रेलगाड़ी को फ्रांस में बारूद से भरा गया और तीन घटनाओं ने उसमें चिंगारी उत्पन्न करने का कार्य किया ।
पहली घटना अमरीका की बस्तियों का स्वतन्त्र होना, दूसरी घटना पेरिस की संसद द्वारा स्टेट्स की मांग, और तीसरी घटना 1788-89 ई. के जाड़ों में फ्रांस में भयंकर अकाल का पड़ना था।
फ्रांस की क्रान्ति का प्रारम्भ होना (घटनाक्रम) फ्रांस की क्रांति के कारण बताइए
फ्रांस की आर्थिक स्थिति लुई सोलहवें के शासनकाल तक बहुत खराब हो चुकी थी और सरकार दिवालियेपन की स्थिति में पहुंच गयी थी। अतः विवशतावश. 1 मई, 1789 को लुई पर ही सोलहवें ने एस्टेट्स जनरल का अधिवेशन बुलाए जाने की घोषणा की।
1789 ई. की बसंत ऋतु में देश में सामान्य निर्वाचन हुआ। जनसाधारण के उन सभी व्यक्तियों को निर्वाचन का अधिकार दिया गया जिनकी आयु 25 वर्ष की थी और जो कोई प्रत्यक्ष कर देते थे।
समाज के तीनों वर्गों के मतदाताओं ने अपनी-अपनी शिकायतों एवं आदेशों के स्मृतिपत्र तैयार किए और अपने-अपने वर्ग से प्रतिनिधियों का चुनाव किया। तत्पश्चात 5 मई, 1789 को एस्टेट्स जनरल का प्रथम अधिवेशन वर्साय के शाही महल में प्रारम्भ हुआ।
प्रथम अधिवेशन में 1214 चुने गए सदस्यों ने भाग लिया। इसमें तीनों वर्गों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। इसमें 285 प्रतिनिधि सामन्त वर्ग के, 308 बड़े पादरियों के और 621 जनसाधारण के प्रतिनिधि थे।
अधिवेशन के दूसरे दिन 6 मई, 1789 ई. को मतदान पद्धति के प्रश्न को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ। कुलीन एवं पादरी वर्ग चाहते थे कि मतदान वर्ग के अनुसार हो जबकि जनसाधारण के प्रतिनिधियों की मांग थी कि प्रत्येक प्रतिनिधि के अनुसार मतदान का आधार निश्चित हो।
इस विवाद से तनाव बढ़ा, परन्तु सरकार ने स्थिति को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। कई दिनों तक यह गतिरोध बना रहा। जनसाधारण ने कई बार अन्य दोनों वर्गों को अपने साथ बैठने के लिए आमन्त्रित किया,
परन्तु सामन्त एवं बड़े पादरी अलग-अलग बैठने के निर्णय पर अड़े रहे, अतः तृतीय श्रेणी के लोगों ने अकेले ही अधिवेशन करने का निश्चय किया। 17 जून, 1789 को एस्टेट्स जनरल को राष्ट्रीय असेम्बली (राष्ट्रीय सभा) घोषित कर दिया गया।
इस अवसर पर छोटे पादरियों ने जन साधारण का साथ दिया और उनकी शक्ति व सम्मान में वृद्धि की। उन्होंने अन्य वर्गों के सदस्यों को भी राष्ट्रीय असेम्बली में सम्मिलित होने के लिए आमन्त्रित किया।
राजा ने अपनी रानी और भाई की सलाह पर राष्ट्रीय असेम्बली को सम्बोधित करने की इच्छा व्यक्त की किन्तु जनसाधारण ने इस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया।
टेनिस कोर्ट की शपथ (French Revolution in hindi)
20 जून, 1789 ई. को राजा ने अपने सैनिकों की सहायता से सभा भवन को बन्द करा दिया और उसकी सुरक्षा के लिए वहां सैनिक नियुक्त कर दिए।
जब जनसाधारण वर्ग के. सदस्य वहां पहुंचे तब सभा भवन को बन्द देखकर सभी सदस्यों ने समीप के एक बड़े हॉल में प्रवेश किया जो टेनिस खेलने के काम आता था।
इस हॉल में एकत्रित सदस्यों ने शपथ ली कि वे उस समय तक इस हॉल से नहीं हटेंगे, जब तक वे देश के लिए एक संविधान की रचना नहीं कर लेंगे। राजा इस घोषणा से अत्यन्त भयभीत हो गया था, किन्तु अस्थिर मति होने के कारण वह कोई निर्णय नहीं ले सका।
टेनिस कोर्ट की शपथ की घटना एक महान घटना थी। डेविड टॉमसन ने लिखा है कि “इसने राजतन्त्र की जड़ों को हिला दिया।”
इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि जनसाधारण के दुई प्रतिनिधि अब राजा या उसके समर्थकों से भयभीत होने वाले नहीं हैं। इसी कारण हेज ने इस घटना के विषय में लिखा है, “यह फ्रांस की क्रान्ति का वास्तविक प्रारम्भ था।”
23 जून, 1789 का अधिवेशन और राष्ट्रीय सभा
उपर्युक्त कार्यवाहियों से चिंतित होकर राजा ने 23 जून, 1789 को तीनों वर्गों का सम्मिलित अधिवेशन बुलाया। अपने भाषण के पश्चात राजा ने घोषणा की कि तीनों वर्गों के प्रतिनिधि. अपने-अपने भवनों में जाकर विचार विमर्श करें।
तत्पश्चात राजा और रानी वहां से उठकर चले गए। उनके जाने के पश्चात कुलीन और पादरी वर्ग के लोग भी वहां से उठ गए परन्तु सर्वसाधारण वर्ग के सदस्य वहीं बैठे रहे।
सर्वसाधारण वर्ग के सदस्य जब वहां से नहीं हिले, तो राजकर्मचारियों ने पुनः उन्हें हाल खाली करने को कहा। इस पर मिराब्यू ने अत्यन्त निर्भीक शब्दों में कहा “महोदय, जाइए और अपने स्वामी से कह दीजिए कि हम यहां जनता की शक्ति से उपस्थित हैं और बन्दूक की नोंक से ही हम यहां से हट सकते हैं।’
इस ऐतिहासिक घोषणा के पश्चात तृतीय श्रेणी के लोगों ने उसी भवन में अपना अधिवेशन जारी रखा। परिस्थिति की गम्भीरता को देखते हुए लुई सोलहवें ने बाध्य होकर सर्वसाधारण का सहयोग करने का निश्चय किया वह बन्दूक की नोंक से सर्वसाधारण की शक्ति को नहीं कुचल सका ।
क्योंकि ऐसा करने पर फ्रांस में गृह युद्ध उत्पन्न होने की आशंका थी। अतः तीन दिन के पश्चात 27 जून, 1789 ई. को राजा ने राष्ट्रीय असेम्बली को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और घोषित किया कि सभी वर्गों के लोग एक स्थान पर एकत्रित हों और बहुमत के आधार पर निर्णय किए जाएं।
पेरिस की जनता का विद्रोह (French Revolution in hindi)
क्रान्तिकारी राजा को पदच्युत नहीं करना चाहते थे, लेकिन राजा ने अपनी अयोग्यता के कारण क्रान्तिकारियों का नेतृत्व करने की जगह उनको दबाने का प्रयत्न किया।
इस समय फ्रांस में विदेशी सैनिकों की कुल संख्या 50,000 थी। उसने जनता को भयभीत करने के लिए इन्हें पेरिस और वर्साय में तैनात करना शुरू किया।
तत्पश्चात 11 जुलाई को वित्तमन्त्री नेकर को पदच्युत कर बारों द ब्रेतोल नामक व्यक्ति को वित्तमन्त्री नियुक्त किया। नेकर सुधारों का समर्थक था तथा जनता में बहुत लोकप्रिय था, इसलिए उसके पदच्युत होने से बहुत असंतोष व्याप्त हुआ।
विदेशी सैनिकों की उपस्थिति के कारण जले पर नमक छिड़कना साबित हुआ और पेरिस की जनता विद्रोह पर उतारू हो गई।
बास्तील का पतन
वित्तमन्त्री नेकर को पदच्युत किए जाने से उत्पन्न गम्भीर परिस्थिति के विषय पर लोग स्थान-स्थान पर जोशीले वाद-विवाद करने लगे।
लोगों को यह विश्वास हो गया कि राजा सेना की सहायता से उन्हें कुचलना चाहता है, अतः उन्होंने हथियार एकत्रित करने प्रारम्भ कर दिए।
सेना में विदेशी सिपाहियों को देखकर जनता बेकाबू हो गई और स्थान-स्थान पर दंगे भड़क उठे। 14 जुलाई, 1789 ई. को उत्तेजित भीड़ ने बास्तील के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया।
यह दुर्ग अत्याचार का गढ़ माना जाता था और इस समय इसका प्रयोग कारागार के रूप में हो रहा था। इस दुर्ग पर आक्रमण का उद्देश्य, वहां एकत्रित हथियारों पर अधिकार करना था। इस दुर्ग की देखभाल का दायित्व दीलॉने के हाथ में था।
उसने पांच घण्टे तक अपने सैनिकों की सहायता से क्रान्तिकारियों की भीड़ से युद्ध किया, लेकिन अंततः क्रान्तिकारियों ने किलेदार दीलॉने व सिपाहियों की निर्मम हत्या कर दी और उनके सिरों को पेरिस की गलियों में घुमाया।
बास्तील के पतन का महत्व-
बास्तील के दुर्ग का पतन यूरोप के इतिहास की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है। यह उदार विचारों की निरंकुश व स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति पर विजय थी।
इतिहासकार गुडविन ने इस सन्दर्भ में लिखा है “क्रान्तिकाल में बास्तील के दुर्ग के समान कोई अन्य बहुमुखी एवं दूरगामी परिणामों वाली घटना घटित नहीं हुई।
दुर्ग के पतन का न केवल फ्रांस में अपितु संसार भर में नयी स्वतन्त्रता के जन्मदाता के रूप में स्वागत हुआ।” बास्तील के दुर्ग के पतन की सूचना मिलने पर लुई सोलहवें ने कहा था “यह विद्रोह है”, किन्तु सूचना देने वाले ने बताया “नहीं श्रीमान, यह तो क्रान्ति है।”
इस ऐतिहासिक घटना पर संसार के सभी प्रजातन्त्र प्रेमियों को विशेष प्रसन्नता हुई थी। बास्तील के पतन का दिन 14 जुलाई, 1789 को राष्ट्रीय दिवस घोषित कर दिया गया।
बास्तील के पतन के परिणाम-
बास्तील दुर्ग के पतन के निम्नांकित महत्वपूर्ण परिणाम हुए-
(1) राजा और उसके सर्मथक यह भली भांति समझ गए कि क्रान्ति के वेग को सेना की सहायता से नहीं रोका जा सकता।
(2) पेरिस की जनता ने राजा का कोई विरोध नहीं किया। उसने नगर से सेना को हटा दिया और नेकर को फिर से नियुक्त कर दिया।
(3) पेरिस के नगर शासन के लिए बेली की अध्यक्षता में क्यून (नगर पालिका) स्थापित कर ली गई।
(4) नागरिक रक्षक दल का पुनर्गठन किया गया और उसका नाम ‘राष्ट्रीय रक्षक दल’ रखा गया।
(5) लुई सोलहवें ने बूर्वो-वंश के सफेद झण्डे के स्थान पर तिरंगे झण्डे को मान्यता प्रदान कर दी।
(6) नगर के बाहर उपद्रव हुए। जमींदारों के घर लूट लिए गए और उनके सभी कागजात जला दिए गए।
(7) पुरातन शासन पद्धति व सामन्तवाद का पतन हो गया।
राष्ट्रीय सभा और उसके कार्य
फ्रांस की क्रान्ति के इतिहास में राष्ट्रीय सभा का गठन एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसने देश में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
इसने न केवल एकतन्त्र को उखाड़ फेंका अपितु विशेषाधिकार प्राप्त कुलीनों व पादरियों के भाग्य को भी सदैव के लिए अस्त कर दिया। 23 जून, 1789 को एस्टेट्स जनरल द्वारा इसकी स्थापना के बाद 27 जून,1789 को राजा ने इसे स्वीकृति प्रदान कर दी थी।
अपने दो वर्ष के कार्यकाल में राष्ट्रीय महासभा ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य किए :
(1).सामन्तवाद की समाप्ति- राष्ट्रीय महासभा ने 4 अगस्त, 1789 ई. को एक प्रस्ताव पारित कर सामन्तवाद को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया।
(2).विशेषाधिकारों की समाप्ति- राष्ट्रीय सभा द्वारा कुलीन वर्ग को प्राप्त विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए। सामन्तों के पास से शिकार करने व न्याय करने के अधिकार छीन लिए गए। इसके अतिरिक्त चर्च का धर्माश नामक कर समाप्त कर दिया गया।
(3).मानव अधिकारों की घोषणा- क्रान्ति के दौरान फ्रांस में फैली सामाजिक तथा आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए राष्ट्रीय महासभा ने 27 अगस्त, 1789 ई. को मानव अधिकारों की घोषणा की जिसके अनुसार कानून की दृष्टि में सभी व्यक्तियों को समान माना गया तथा उन्हें धर्म का अनुसरण व भाषण देने की स्वतन्त्रता प्रदान की।
(4).नवीन संविधान का निर्माण- राष्ट्रीय महासभा ने यूरोप के प्रथम लिखित संविधान का निर्माण 1791 ई. में किया जिसे तुरन्त ही लागू कर दिया गया। इस संविधान के अनुसार राजा की शक्ति बहुत कम हो गई।
(5).पादरियों का संविधान— चर्च तथा धर्म व्यवस्था में सुधार करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय सभा ने पादरियों के लिए एक उपयुक्त संविधान का निर्माण किया जिसके द्वारा धार्मिक अनैतिकताओं को दूर करने का प्रयास किया गया।
राष्ट्रीय कन्वेन्शन (1792 से 1795 ई.)
20 सितम्बर, 1792 ई. के चुनावों के पश्चात् राष्ट्रीय कन्वेन्शन की स्थापना हुई। इसका प्रथम अधिवेशन 21 सितम्बर, 1792 ई. को हुआ। इसके 782 सदस्यों में से 200 जिरोदिस्ट,100 जैकोबिन्स और 482 निर्दलीय सदस्य थे।
किसी भी पार्टी को इसमें स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था, किन्तु जिरोंद दल की संख्या जैकोबिन दल से अधिक थी। इसीलिए वे क्रान्ति का नेतृत्व करना चाहते थे। उन्हें अराजकता, अव्यवस्था और रक्तपात पसन्द नहीं था। वे आतंक के विरोधी,
थे और पेरिस की भीड़ की शक्ति को कुचलना चाहते थे, जबकि जैकोबिन दल के सदस्य किसी भी प्रकार शासन चलाना चाहते थे। उन्होंने अपनी धूर्तता से संख्या में कम होते हुए भी शक्ति को हड़प लिया और फ्रांस के वास्तविक कर्णधार बन बैठे। उनके शासनकाल में फ्रांस में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।
राष्ट्रीय कन्वेन्शन के कार्य
राष्ट्रीय कन्वेन्शन के प्रथम अधिवेशन में यह निर्णय किया गया था कि फ्रांस में राजतन्त्र के स्थान पर प्रजातन्त्र की स्थापना की जाएगी। इसके अतिरिक्त फ्रांसीसी कलैण्डर (पंचांग) में भी अनेक सुधार किए गए,
महीने को दस-दस दिन के तीन भागों में विभाजित किया गया तथा महीनों के नाम पशुओं और प्रकृति के नामों पर रखे गए। वर्ष के बाद पांच दिन का राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया।
यह भी निर्णय किया गया कि एक अपराधी के रूप में राजा पर मुकदमा चलाया जाए और क्रान्ति काल में देश छोड़कर भाग गए सामन्तों को निष्कासित घोषित किया जाए। साथ ही नवीन संविधान के निर्माण के लिए एक समिति का गठन किया गया।
इस काल का सबसे महत्वपूर्ण कार्य फ्रांस में गणतन्त्र की स्थापना था। इस काल में शासन सत्ता पर जैकोबिन दल के सदस्यों का प्रभुत्व रहा।
उन्होंने राजा (लुई 16वां) को क्रान्ति का शत्रु घोषित करके 21 जनवरी, 1793 ई. को मृत्युदण्ड दिया। तत्पश्चात् इन्होंने जिरोदिस्ट दल के सदस्यों का कत्लेआम कराया और आतंक का शासन स्थापित किया।
इस काल में भयंकर रक्तपात हुआ और क्रान्ति के नाम पर हजारों निर्दोष लोगों का खून बहाया गया। इसके अतिरिक्त 1795 ई. में राष्ट्रीय कन्वेशन की सरकार द्वारा फ्रांस के लिए एक नवीन संविधान का निर्माण किया गया।
राष्ट्रीय कन्वेन्शन के कार्यों का मूल्यांकन
राष्ट्रीय कन्वेशन के सामने अनेकानेक कठिनाइयां थीं जिन्हें हल करने के लिए उसने प्रत्येक सम्भव प्रयास किया और बहुत सीमा तक देश को सम्भावित खतरे से बचा भी लिया जो उसके सिर पर मंडरा रहा था।
परन्तु यहां यह भी उल्लेख करना उपयुक्त होगा कि राष्ट्रीय कन्वेशन के सभी सदस्य इस योग्य नहीं थे कि प्रशासन के कार्य को भली प्रकार सम्पादित कर सकते।
जैकोबिन व जिरोंद दल के परस्पर संघर्ष ने राष्ट्रीय कन्वेन्शन की उपलब्धियों पर विपरीत प्रभाव डाला। मैडलिन जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार ने नेशनल कन्वेन्शन की उपलब्धियों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है-“
अपने प्रशंसकों की दृष्टि में नेशनल कन्वेन्शन ने सफलता और गुणों की अन्तिम चोटी तक पहुंचने का यत्न किया और आलोचकों की दृष्टि से उसने पतन की पराकाष्ठा को भी छुआ था।’
संचालक मण्डल (डाइरेक्टरी)
नवीन संविधान के अनुसार 27 अक्टूबर, 1795 ई. को फ्रांस में संचालक मण्डल का शासन आरम्भ हुआ। संचालक मण्डल की स्थापना के साथ विशुद्ध क्रान्ति का अन्त हो गया।
संचालक मण्डल के भ्रष्ट और बेइमान राजनीतिज्ञों के शासन में फ्रांस 1791 ई. के प्रजातन्त्र से काफी दूर हट गया। इसकी स्थापना से राजनीतिक प्रक्रिया की दिशा में फ्रांस ने पहला कदम उठाया, जिसकी पराकाष्ठा पांच वर्ष पश्चात् नेपोलियन के सैनिक शासन में हुई।
नेपोलियन का युग | नेपोलियन बोनापार्ट की उपलब्धियां
नेपोलियन बोनापार्ट (1769-1821) एक महान् सुधारक और आधुनिक फ्रांस का निर्माता था। नेपोलियन बोनापार्ट अत्यन्त ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति था।
फ्रांस की संचालक मण्डल द्वारा उसे फ्रांसीसी सेना का सेनापति नियुक्त किया गया था, जो कि कालान्तर में अपनी महत्वाकांक्षा, वीरता और योग्यता के बल पर फ्रांस का तानाशाह बन बैठा।
नेपोलियन ने फ्रांस के पुनर्निर्माण के लिए महत्वपूर्ण कार्य किए। उसने प्रशा (1806 ई.), रूस (1807 ई.) तथा ऑस्ट्रिया (1805 ई.) को पराजित कर फ्रांस की शक्ति और प्रतिष्ठा को शिखर पर पहुंचा दिया था।
वह इंग्लैण्ड को भी पराजित करना चाहता था, परन्तु 1815 ई. में वाटरलू के युद्ध में मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने उसे पराजित कर बन्दी बना लिया था। बन्दी जीवनकाल में ही 1821 ई. में सेण्ट हेलेना द्वीप में उसकी मृत्यु हो गई।
1789 फ्रांस की क्रान्ति के परिणाम | Causes of french revolution in hindi
फ्रांस की क्रान्ति एक युग परिवर्तनकारी घटना थी। इस क्रान्ति के निम्नलिखित ‘
(1) सामन्तशाही का अन्त-
फ्रांसीसी क्रान्ति की महत्वपूर्ण देन सामन्तीय व्यवस्था का अन्त करना था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत बहुत वर्षों तक सामान्य जनता का शोषण किया गया, आर्थिक शोषण तो इस व्यवस्था की चारित्रिक विशेषता थी।
फ्रांस की क्रान्ति द्वारा विशेषाधिकारों का अन्त करके समानता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया। इस क्रान्ति का अन्य देशों पर भी प्रभाव पड़ा कि यूरोप के अन्य देशों में भी धीरे-धीरे सामन्तशाही का अन्त हो गया।
(2) धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना-
इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप यूरोपीय देशों में धार्मिक सहिष्णुता का प्रादुर्भाव हुआ एवं लोगों को धार्मिक उपासना की स्वतन्त्रता प्राप्त हुई एवं धर्म के सम्बन्ध में राजा का कोई हस्तक्षेप नहीं रहा।
(3) राजनीतिक स्वतन्त्रता, सामाजिक समानता एवं राष्ट्रीय बन्धुत्व की भावना का विकास-
क्रान्ति के समय क्रान्तिकारियों द्वारा ही तीन सिद्धान्तों के प्रसार को अपना ध्येय बनाया गया। क्रान्ति नै राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक दृष्टि से प्रत्येक नागरिक को पूर्ण रूप से स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया। स्वन्त्रता, समानता व बन्धुत्व का प्रचार केवल फ्रांस में ही नहीं, अपितु समस्त यूरोप में किया गया।
(4) राष्ट्रीयता की भावना का विकास-
इस क्रान्ति की एक महत्वपूर्ण देन नागरिकों के हृदय में अपने देश की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करना था, जब विदेशी सेनाओं ने राजतन्त्र की सुरक्षा के लिए फ्रांस पर आक्रमण किया तो उस समय किसान,
मजदूर एवं अन्य लोगों ने सेना में भर्ती होकर अत्यन्त वीरता के साथ विदेशी सेनाओं का सामना किया तथा विजय प्राप्त की। वह राष्ट्रीयता की भावना का ही एक ज्वलन्त उदाहरण है।
राष्ट्रीयता की यह भावना यूरोप के अन्य देशों में भी व्याप्त होती गई। 1830 ई., 1848 ई. की व्यापक क्रान्तियां तथा 1870-71 में इटली व जर्मनी का एकीकरण इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
(5) लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन-
इस क्रान्ति द्वारा राजनीतिक दृष्टि से राजाओं के ‘दैवी अधिकार के सिद्धान्त’ का अन्त करके लोकप्रिय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया। कानून अब एक व्यक्ति अर्थात् राजा की इच्छा का परिणाम न होकर राष्ट्र के निर्वाचित प्रतिनिधियों की इच्छा का परिणाम था।
वंशानुगत एवं भ्रष्ट न्यायाधीशों के स्थान पर अब निर्वाचित न्यायपालिका एवं जूरी पद्धति का प्रारम्भ हुआ। सर्वसाधारण द्वारा देश की राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा बंटाने से उनमें आत्मविश्वास की भावना का संचार हुआ।
(6) समाजवाद की स्थापना—
कुछ इतिहासकारों के अनुसार फ्रांस की क्रान्ति समाजवादी विचारधारा का स्रोत थे। राष्ट्रीय सभा ने मनुष्यों के आधारभूत सिद्धान्तों की घोषणा की, जिसमें प्रजातन्त्र का शिलान्यास किया गया।
इस घोषणा में स्पष्ट रूप से कहा गया कि “सभी मनुष्य समान हैं तथा उन्नति का अवसर प्रत्येक को समान रूप से दिया जाना चाहिए।” रूसो के सिद्धान्त के अनुसार सब मनुष्य समान रूप से स्वतन्त्र जन्म लेते हैं, किन्तु सामाजिक बन्धन उनको जकड़ लेते हैं।
उन बन्धनों को तोड़ने के लिए नेशनल असेम्बली ने अधिक परिश्रम किया, सभी के लिए एकसमान कानून तथा कर की व्यवस्था की गई।
विशेषाधिकार युक्त वर्ग का अन्त करने के लिए 4 अगस्त, 1789 ई. को एक प्रस्ताव पास किया गया जिसके द्वारा कुलीनवर्ग का अन्त हो गया। अब कुलीन लोग भी साधारण वर्ग के समान ही थे तथा अब वे दरिद्र किसानों पर अत्याचार नहीं कर सकते थे।
दास प्रथा का भी अन्त हो गया। जागीरदारों ने जनता के रुख को देखकर स्वयं ही अपने विशेषाधिकार त्याग दिए तथा फ्रांस से सामाजिक असमानता समाप्त हो गई।
(7) शिक्षा एवं संस्कृति का विकास–
फ्रांस की क्रान्ति ने शिक्षा को चर्च के आधिपत्य से निकालकर उसे राष्ट्रीय, सार्वभौमिक तथा धर्मनिरपेक्ष बनाया साथ ही पुरातन-व्यवस्था के अन्धविश्वासों को नष्ट किया। यूरोपीय साहित्य में स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन भी क्रान्ति का ही परिणाम था।
फ्रांस की क्रांति से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न:-
Q.1.फ्रांस की क्रांति कब हुई?
उत्तर-5 मई 1789 में फ्रांस की क्रांति प्रारंभ हुई थी।
Q.2.फ्रांस की क्रांति के समय फ्रांस का सम्राट कौन था?
उत्तर- फ्रांस की क्रांति के समय फ्रांस का सम्राट लुई चौदहवां (1643-1715 ई.) था वह स्वयं को पृथ्वी पर ईश्वर प्रतिनिधि मानता था और निरंकुश स्वेच्छाचारी तरीके से अवाध रूप से जनता पर शासन करता था।
Q.3.फ्रांस की क्रांति के समय फ्रांस की मुद्रा क्या थी?
उत्तर- वेस्ट अफ्रीकन सीएफए फ्रांक franc CFA BCEAO (फ्रेंच) थी।
Q.4.फ्रांस की क्रांति के क्या परिणाम हुए?
उत्तर- फ्रांस की क्रान्ति द्वारा विशेषाधिकारों का अन्त करके समानता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया। इस क्रान्ति का अन्य देशों पर भी प्रभाव पड़ा कि यूरोप के अन्य देशों में भी धीरे-धीरे सामन्तशाही का अन्त हो गया।
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