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प्रथम विश्व युद्ध तथा राष्ट्र संघ लीग आफ नेशंस | pratham vishwa yudh kab hua tha
(pratham vishwa yudh kab hua tha) बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में यूरोप महाद्वीप का राजनीतिक वातावरण तनावपूर्ण हो गया था। सभी देश एक-दूसरे की शक्ति से भयभीत होकर अपनी सुरक्षा के लिए मित्र देशों के साथ कूटनीतिक व गुप्त सन्धियां करने में व्यस्त थे।
बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में सम्पूर्ण यूरोप दो शक्तिशाली गुटों अर्थात् त्रिराष्ट्रीय मैत्री’ (Triple Entente) और ‘त्रिराष्ट्रीय संघ (Triple Alliance) में विभाजित हो गया था।
‘त्रिराष्ट्रीय मैत्री’ में इंग्लैण्ड, फ्रांस व रूस सम्मिलित थे और ‘त्रिराष्ट्रीय संघ’ में जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी व इटली सम्मिलित थे। इन गुटों को पारस्परिक प्रतिस्पर्धा ने यूरोप के राजनीतिक वातावरण को विषाक्त बना दिया था।
सैनिक शक्ति के विकास, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, उग्रराष्ट्रवाद, आदि के फलस्वरूप यूरोप के विभिन्न देशों के मध्य मनमुटाव, अविश्वास व शत्रुता का वातावरण उत्पन्न हो गया था। इन सभी परिस्थितियों ने मिलकर सन् 1914 ई. में एक ऐसी घटना को जन्म दिया जिसने समस्त विश्व को अपनी आग की लपटों से घेर लिया था।
इस घटना को प्रथम विश्वयुद्ध कहा जाता है। यह विनाशकारी महायुद्ध जिसने विश्वव्यापी रूप धारण किया, लगभग चार वर्षों (1914-1918 ई.) तक चलता रहा। इस महायुद्ध में अपूरणीय क्षति हुई। युद्ध के परिणामों ने सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया।
प्रथम विश्वयुद्ध के कारण
प्रथम विश्वयुद्ध आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि ऐसे अनेक कारण व परिस्थितियां थीं,जिन्होंने इस विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि का निर्माण किया था। गुप्त व कूटनीतिक सन्धियों के फलस्वरूप सन् 1907 में यूरोपीय शक्तियां दो विरोधी सैनिक शिविरों में विभाजित हो गईं।
इन विरोधी गुटों में कटुता बढ़ाने में बाल्कन संकट ने भी सहयोग प्रदान किया। अन्ततः यूरोपीय शक्तियों
के मध्य सन् 1914 ई. में युद्ध का विस्फोट हो गया और शीघ्र ही इसकी भयंकर लपटों ने सम्पूर्ण विश्व को घेर लिया। इस विश्वयुद्ध के प्रमुख कारण अग्रांकित थे :
(i) उग्र राष्ट्रीयता की भावनाएं-
प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व यूरोप के देशों (इंग्लण्ड, स्पन, हो चुकी थीं। उग्र राष्ट्रीयता के परिणामस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों के मध्य उत्पन्न पारस्परिक घृणा,पुर्तगाल, जर्मनी, इटली, बेल्जियम, हॉलैण्ड, फ्रांस, आदि) में उग्र राष्ट्रीयता की भावनाएं विकसित तनाव, स्पर्धा, संघर्ष और द्वेष ने युद्ध की अपरिहार्य स्थिति उत्पन्न कर दी थी, जिसके फलस्वरूप प्रथम विश्वयुद्ध का पथ प्रशस्त हो गया था।
(ii) आर्थिक साम्राज्यवाद-
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त चवीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ ब्रिटेन और जर्मनी के मध्य विकसित वैमनस्य का प्रमुख कारण आर्थिक साम्राज्यवाद था। दोनों देशों की औद्योगिक और व्यावसायिक उन्नति एक-दूसरे के लिए प्रतिस्पर्धा का कारण बन गई थी, फलस्वरूप दोनों के मध्य युद्ध का दावानल विश्वयुद्ध में परिणत हो गया।
(iii) उपनिवेशवाद-
प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व यूरोप के विभिन्न देश (इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस,आदि) प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन कर अपना माल बेचने के लिए अविकसित देशी को अपने अधिकार में करके उन्हें उपनिवेश बनाने में संलग्न थे; इसे वे अपने आर्थिक विकास के लिए आवश्यक मानते थे। उपनिवेश स्थापना को लेकर यूरोपीय देशों के आपसी स्वार्थ टकराने लगे जिसकी परिणति प्रथम विश्वयुद्ध के रूप में हुई।
(iv) फ्रांस-जर्मनी का वैमनस्य-
1871 ई. में जर्मनी ने फ्रांस को पराजित कर फ्रांस के क्षेत्र अल्सास तथा लारेन छीन लिए थे इससे फ्रांस जर्मनी का परम शत्रु बन गया था इसी वैमनस्य ने प्रथम विश्वयुद्ध का सूत्रपात किया था।
(v) रूस-टर्की का वैमनस्य—
प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व रूस-टर्की के मध्य वैमनस्य चरम सीमा पर पहुंच गया था। टर्की के अन्तर्गत स्लाव क्षेत्रों पर रूस अखिल स्लाव नीति द्वारा साम्राज्य प्रसार में संलग्न था। टर्की स्लाव जाति पर बर्बर अत्याचार कर उन्हें अपना वशवर्ती बनाने में तत्पर था। इस प्रकार रूस और टर्की एक-दूसरे के कट्टर शत्रु थे, उनकी यही शत्रुता प्रथम विश्वयुद्ध के लिए उत्तरदायी बनी।
(VI) जर्मनी-ब्रिटेन की प्रतिस्पर्क-
आर्थिक तथा औपनिवेशिक सामाज्यवादी प्रवृत्ति ने जर्मनी और ब्रिटेन दोनों को एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने के लिए प्रेरित कर दिया था, जिससे जर्मनी अपनी नौसेना को शक्तिशाली बनाने हेतु व्यग्र हो गया क्योकि ब्रिटेन की नौ-सेना शक्तिशाली थी।
इससे ब्रिटेन भयभीत हो गया और जब जर्मनी ने बर्लिन-बगदाद रेलपथ बनाने की योजना साकार की तो इंग्लैण्ड उसके विरुद्ध गुट बनाने के लिए प्रेरित हो गया। इस प्रकार शनैः शनैः दोनों के मध्य पनपती प्रतिस्पर्धा उन्हें महायुद्ध की ओर खींच ले गई। जर्मनी के सम्राट विलियम कैसर की अत्यधिक महत्वाकांक्षा ब्रिटेन के विरुद्ध संघर्ष का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण था।
(vii) सैनिक गुटबन्दी–
प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व यूरोप के शक्तिशाली राष्ट्र सैनिक गुटबन्दी में आबद्ध हो गए थे। यूरोप दो गुटों में विभाजित हो गया था। एक गुट इंग्लैण्ड, फ्रांस, रूस का था जो मित्रराष्ट्रों का गुट कहलाता था इसे त्रिराष्ट्रीय मैत्री का गुट (Triple Entente) भी कहते थे।
दूसरा गुट जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी, इटली का था जो केन्द्रीय राष्ट्रों का गुट कहलाता था। इसे त्रिराष्ट्रीय संघ का गुट (Triple Alliance) भी कहते थे। यही सैनिक गुटबन्दी प्रथम विश्वयुद्ध का प्रमुख कारण सिद्ध हुई थी।
(vii) यूरोप के राष्ट्रों में पारस्परिक सन्देह व शत्रुता की भावना-
प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व यूरोप के विभिन्न राष्ट्र पारस्परिक सन्देह व शत्रुता की भावना से घिर चुके थे। जर्मनी और फ्रांस,जर्मनी व रूस, जर्मनी व इंग्लैण्ड, रूस और आस्ट्रिया, रूस व टर्की के मध्य पारस्परिक सन्देह व शत्रुता की भावना घर कर गई थी जिसकी परिणति प्रथम विश्वयुद्ध थी।
(ix) मोरक्को संकट से उत्पन्न विवाद–
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में फ्रांस और जर्मनी के मध्य मोरक्को के प्रश्न पर गम्भीर विवाद उठ खड़ा हुआ, यहां तक कि युद्ध की सम्भावना उत्पन्न हो गई। इंग्लैण्ड के हस्तक्षेप से युद्ध रुक गया (1911 ई. में) परन्तु जर्मनी और फ्रांस मोरक्को पर आधिपत्य के प्रश्न पर भावी युद्ध की तैयारियों में संलग्न हो गए।
(3) बाल्कन समस्या-
बाल्कन क्षेत्रों की समस्याओं ने लगभग 100 वर्षों तक यूरोपीय राष्ट्रों के मध्य पारस्परिक शत्रुता व संघर्ष का पथ-प्रशस्त किया था। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इस बढ़ते नासूर ने राजनीतिक वातावरण को विषैला बना दिया था। बाल्कन युद्धों ने प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि निर्मित कर दी थी।
(xi) तात्कालिक कारण–
उपर्युक्त परिस्थितियों के फलस्वरूप सम्पूर्ण यूरोप में अशान्ति व अव्यवस्था के चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे थे। यूरोप महाद्वीप में चारों ओर युद्ध के बादल मंडराने लगे। बारूद में विस्फोट के लिए केवल एक चिनगारी की आवश्यकता थी।
आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या की घटना ने उस चिनगारी का काम किया। 28 जून, 1914 ई. को आस्ट्रिया के सम्राट के भतीजे तथा आस्ट्रिया के राजसिंहासन के उत्तराधिकारी, आर्क ड्यूक फ्रान्सिस फर्डीनेण्ड व उसकी पली सोफी की गोली मारकर हत्या बोस्निया की राजधानी सेराजिवो में कर दी गई।
यद्यपि यह कुकृत्य आस्ट्रिया की जनता ने किया था, तथापि इसका आरोप सर्विया पर लगाया गया। आस्ट्रिया व सर्विया के सम्बन्ध बोस्निया-हर्जेगोविना के प्रश्न पर पहले से ही खराब थे। इस घटना के फलस्वरूप आस्ट्रिया को सर्बिया से प्रतिशोध लेने का मौका मिल गया।
आस्ट्रिया ने सर्विया के सम्मुख दस सूत्रीय मांग पत्र प्रस्तुत किया तथा इसे स्वीकार करने के लिए सर्विया
को 48 घण्टे का अल्टीमेटम दिया। सर्बिया ने इस मांग पत्र की अनुचित मांगों को स्वीकार नहीं किया।
इससे जर्मनी ने 5 जुलाई, 1914 ई. में आस्ट्रिया सरकार को सूचित किया कि सर्बिया के विषय में वह जो भी निर्णय करेगा, जर्मनी उसका पूर्ण समर्थन करेगा। इस समर्थन को जर्मनी द्वारा आस्ट्रिया को कोरा चैक देना, माना जाता है।
फलस्वरूप आस्ट्रिया ने 28 जुलाई,1914 ई. को सर्बिया पर आक्रमण कर दिया। जर्मनी ने अपने वादे के अनुसार आस्ट्रिया का पक्ष लिया। 31 जुलाई, 1914 ई. को रूस ने आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
चूंकि फ्रांस रूस का मित्र था, अतः उसने भी जर्मनी व आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 4 अगस्त, 1914 ई. को ग्रेट ब्रिटेन भी इस युद्ध में सम्मिलित हो गया। इस प्रकार युद्ध ने विश्वव्यापी रूप ले लिया।
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